Tuesday 29 September 2015

सुलझी हुई जुल्झी सी ज़िन्दगी.....


सुलझे धागों में उलझी सी ज़िन्दगी
कभी गिरती कभी संभालती |
थोड़ा सा बेकाबू दिल
कभी समदिल कभी बुज़दिल

        झुकाने से भी झुकता नही
        गिराने से भी गिरता नही
        उम्मीदों से है ये भरा हुआ
        फिर क्यों है ये खुद से डरा हुआ

नई नई सज़ाएं क्यों है ये खुद को देता
ज़िद है जब हँसने की तो फिर क्यों है ये रोता
रुकना थामना है इसने न कभी सीखा 
फिर क्यों ये आगे बढ़ने से डरता

       ज़िद है की अँधेरे को चीर कर फिर वापस रौशनी लाएंगे
       खो गयी है जो हँसी उसे फिर जगाएंगे
       फिर क्यों ये गम से ज्यादा ख़ुशियों से डरता
       अँधेरे घर में क्यों ये चिराग जलाने से डरता